मंगलवार, 15 जून 2021

एक गधे की बात!

एक दिन घर से निकल कर पप्पू घूमते घूमते चिड़ियाघर पहुँचा तो वहाँ काफ़ी कम लोग थे। पप्पू को देख सभी जानवर बोरियत भगाने के लिये उससे कुछ मज़ेदार सुनाने की फ़रमाइश करने लगे। जानवरों की भारी माँग को देखते हुए पप्पू ने उन्हें इंसानी बेवकूफ़ियों पर एक चुटकुला सुनाया। चुटकुला पूरा होते ही चिड़ियाघर के तमाम जानवर जोर-जोर से ठहाके लगाने लगे, सिर्फ़ एक गधे को छोड़ कर। वो गधा चुटकुला सुनने के बाद भी विरक्त भाव से जुगाली करते हुए अपनी पूँछ से मक्खी भगाता रहा। पप्पू ने गधे के उदासीन भाव को देख लिया लेकिन बिना उसे टोके घर लौट गया। 

तीन दिन बाद पप्पू फिर से उसी चिड़ियाघर में पहुँचा। सभी जानवर उसे अभी चुपचाप देख ही रहे थे कि तभी अचानक बैशाखनंदन जोर जोर से ठहाके लगाने लगा। जानवर ये देख कर हैरान थे लेकिन पप्पू तत्काल उसके मन की बात समझ गया। गधा उसे यही बताने की कोशिश कर रहा था कि पप्पू का चुटकुला उसे आज पूरी तरह समझ में आ गया है। गधा तीन दिन बाद उसी चुटकुले पर पूरे पच्चीस मिनट तक हँसता रहा जिसे बाक़ियों ने उसी वक़्त समझ लिया था।

पप्पू तब से चिड़ियाघर के मुख्य विष्ठा कक्ष में उस गधे को चुपचाप चुटकुला सुना कर जाता है और उसके तीन दिन बाद सभी जानवरों को एक साथ वही चुटकुला सुनाता है, ताकि गधा उसी वक़्त सबके साथ हँस सके। इससे पता चलता है कि पप्पू को गधे तक की इज्ज़त की फ़िक्र है। पप्पू का ये कर्म सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के मूल मंत्र पर आधारित है। 

नोट - मितरों इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि किसी भी ( गधे ) की कमज़ोरी का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिये बल्कि उसकी मदद ही करनी चाहिए। वरना गधा वक़्त बेवक़्त रेंकने लगता है।

- भूपेश पन्त

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

अपने अपने प्रस्थान बिंदु

बूढ़ा फकीर लगातार घर का दरवाज़ा खटखटा रहा था। लग रहा था कि वो भूख प्यास से व्याकुल है।

गांव के साधारण से घर में उस वक्त मौजूद बुढ़िया ने दरवाज़ा खोल कर गुस्से में कहा, 'अब क्या मुए ये दरवाज़ा भी नहीं छोड़ेगा। कमबख़्त सब कुछ खा गया फिर भी मेरी जान नहीं छोड़ता। अब क्या लेने आया है....'

फकीर ने आँसू भरी निगाहों को ऊपर उठाते हुए कहा, 'बहुत भूखा हूँ माई कुछ खाने को दे दे तेरा भला होगा..'

बुढ़िया गुस्से में आकर, .... 'कमाल है अभी भी तेरा पेट नहीं भरा। पांच साल पहले इसी तरह रुआँसा हो के आया था मेरे पास। जब पेट भर गया तो अच्छे दिन आयेंगे कह कर चला गया और तब से आज आया है।'

फकीर ने कुछ बोलना चाहा... 'वो मैं....।'

बुढ़िया अपनी रौ में थी, ....'अब रहने दे झूठ बोलना। तेरे अच्छे दिनों के चक्कर में मेरे घर के बर्तन भांडे तक बिक गये। पता नहीं तूने क्या क्या बंद करा दिया। नोट, दुकान, गाड़ी, नौकरी, खाना पीना सब कुछ। पूरा गाँव उजड़ गया। अबकी खाना खिलाऊंगी तो पता नहीं मेरा सांस लेना ही बंद न करा दे।'

फकीर, 'अरे माई सुन तो ले...'

'अब क्या सुनाएगा तू....हैं। अपनी ही मन की बात कहते रहियो। हमरी ना सुनियो बस। मन तो करता है चूल्हे की लकड़ी का धुंआ तेरी आँखों में डाल दूं पर क्या करूं कपड़े जो फकीरों वाले पहने हैं। पर मुझे तो तू इन कपड़ों में पूरा रावण लागे है जंगल वाला....' बुढ़िया जैसे बौरा सी गयी थी।

फकीर, 'लेकिन माई मैं तो पहली बार तेरे पास आया हूँ। मैंने कोई धोखा नहीं दिया। तू कहती है तो मैं तेरी चौखट से भूखा ही प्रस्थान कर जाता हूँ। लेकिन बता रहा हूँ वो कोई और था जो तुझे बेवकूफ़ बना कर प्रस्थान कर गया।'

बुढ़िया झल्ला कर बोली, 'करमजले मुझे बेवकूफ़ बता रहा है। वही ट्रिम की हुई सफेद दाढ़ी, वही कुटिल मुस्कान, वही इस्तरी किये हुए डिजाइनर भगवा वस्त्र, वही भीख का चमकता कटोरा और झोले में वही झूठे वायदे। मेरी आँखों में भले ही दो साल से मोतियाबिंद उतर गया हो लेकिन तेरी शक्ल मैं आज तक नहीं भूली। खबरदार जो अब कभी मेरा दरवाज़ा खटखटाया तो। चल भाग यहां से....'

फकीर ने अपनी बेतरतीब दाढ़ी पर कांपता हाथ फेरा। फटे पुराने कपड़ों पर पड़ी धूल को झाड़ा और लड़खड़ाते हुए लौटने लगा। किसी ने फकीर बन कर उससे फकीरी करने का हक भी छीन लिया था। इंसानियत भी न जाने कहाँ प्रस्थान कर गयी कि माई ने उसकी बात तक नहीं मानी। क्या कोई इस हद तक भी किसी का विश्वास तोड़ सकता है क्या। अपनी आख़िरी उम्मीद से नाउम्मीद हो वो फकीर अपना झोला उठाये उदास मन से न जाने किस दिशा में बढ़ चला। ऊपर भगवा से आसमान में फैलती लाली बता रही थी कि सूरज तेजी के साथ अपने प्रस्थान बिंदु की ओर बढ़ रहा है।

- भूपेश पंत

वो है डॉन!

कुछ फेरबदल के साथ रिलीज हुई डॉन सीरीज की इस नयी फिल्म की संवाद अदायगी, गीत संगीत और एक्शन आज भी ब्लॉक ब्लस्टर है। आज भी डॉन को समझ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है जैसे डायलॉग पर दर्शक तालियाँ पीट पीट कर पागल हो रहे हैं। वो आज भी देखने में सफेदपोश है। बड़े बड़े जहाजों में विदेश घूमता है। वो एक जगह पर और अपने कहे पर बहुत देर नहीं रुकता। वो आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता लेकिन खुद बहुत फेंकता है। उसके फेंके हुए शब्द उन विरोधियों के कानों में पिघले शीशे की तरह टपकते हैं जिन्हें अपने दिमाग़ पर बहुत भरोसा है। जो लोग दर्द से चिल्लाते भी हैं उन्हें वो पुलिस का कुत्ता बता कर गोली मरवा देता है। आज भी कई देशों में पुलिस उसके द्वारा भगाये गये लोगों को ढूँढ रही है। उसके भीतर उस जैसा जो मर चुका है उसका पता किसी को नहीं है। लिहाज़ा उसे आज भी डबल रोल का फायदा उठा कर कानून और दर्शकों को चकमा देना आता है। अपनी अय्यारी के दम पर वो अलग अलग मौकों पर अपने बयान और हाव भाव बखूबी बदल सकता है। आज भी पूरे गैंग में उसका दाहिना हाथ एक ही है। हालाँकि वो आज भी किसी पर भरोसा नहीं करता। उसके गैंग के सड़क छाप गुंडे अब समाज में सम्मानित हैं और बदले में उसके खिलाफ़ उठने वाली हर आवाज का टेंटुआ दबा देते हैं। उन्हें केवल आदेश का पालन करना धर्म की घुट्टी में पिलाया गया है। इस बार उसे मामूली से डॉन बनाने वाला खुद सीन से नदारद है और नया वरधान सब जानते हुए भी उसके अभिनय पर हैरान है। आक्रामकता में ही बचाव है और इसलिए वो भी अपने दुश्मन को संभलने का मौका नहीं देता। जो लोग उसकी असलियत बता कर उसे पकड़वा सकते हैं उन्हें वो पहले ही काला चोर साबित कर चुका है। अब देश की पुलिस और जनता काले चोरों के पीछे पड़ी है और डॉन क्योटो जैसी जगमगाहट के बीच मजे में बनारसी पान खाइके छोरा गंगा किनारे वाला पर कूल्हे मटका रहा है।

- भूपेश पंत

कबूतरखाना!

कभी कबूतरों को देखा है
गर्वीली गरदन लेकर
अपने आप से गुटरियाते
दाने चुगते
अपनी धुन में मग्न
किसी की याद दिलाते
ये कबूतर
उनकी अकड़
और
खिड़कियों से आती
बकर बकर की
आवाज़
बहुमंजिला इमारतों के किसी
दड़बे में
आपको रात दिन
चैन से रहने नहीं देती
ये झुंड में रहते हैं
गंदगी फैलाते हैं
उनकी सतत गुर्राहट में
किसी अनजानी बिल्ली का ख़ौफ़ है
और
एक चेतावनी भी
कभी
वो क़ासिद बन कर
प्यार मुहब्बत
के
संदेश पहुंचाते थे
आज उसके अंतर्जालीय रूप
के सहारे
नफ़रत के पर्चे बांटे जाते हैं

एक दिन
मेरा भी सामना हुआ
एक कबूतर से
जो गलती से आ फंसा
घर के एक कमरे में
उसे लगा
मैं उसे नुकसान पहुंचाना चाहता हूँ
लेकिन
मैं तो कमरे के कीमती सामान को
उसकी फड़फड़ाहट से
बचाने के लिये
बस बाहर निकालना चाहता था
वो कई बार
मुझ पर झपटा
ख़ौफ़ में
कोई भी ऐसा ही करता
लेकिन
वो तो मुझ पर
बीट करके भाग गया

मेरी कबूतरों से
कोई
व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है
वो निश्चित ही
होते हैं
शांत, सरल और गंभीर
इस तरह से सतर्क
जैसे हर पल सता रहा हो
मौत का भय उन्हें
सच तो ये है
कि
इसके लिये
वो इंसान ज़िम्मेदार हैं
जिन्होंने मुझे
ये राय बनाने पर मज़बूर किया
कि
इंसानी कबूतरखाने के
आसमान में उड़ता
हर कबूतर
शांतिदूत नहीं होता।

- भूपेश पंत

एकल अभिनय!

वो नेता है
वो ही अभिनेता है
वो पक्ष है
और
वो ही विपक्ष है
वो अकेले ही सुनता है
वो अकेले ही बोलता है
उसे अकेला होना
इतना पसंद है
कि
वो जा बैठा है
सत्ता के शीर्ष पर
अब वो ही जनता है
और
वो ही शासक
इस रंगमंच पर
उसका
अकेला होना जरूरी है
और
तालियां बजाना
दर्शकों की
विकल्पहीन मजबूरी है
वो हमेशा से चाहता था
अकेला हो कर
अपनी ताकत का
अहसास करना
इसलिए
अपनी पटकथा में
वो
अपने खिलाफ़ भी
अपनी पसंद से ही चुनता है
किरदार
और
भरोसा दिलाता है
कि
जन्मा है वही एक
अवतार
करने सबका उद्धार
वो चाहता है
एक डर
एक सुर
एक उन्माद
एक मौका
एक पार्टी
एक फूल
एक पेड़
एक रंग
एक धर्म
और
एक सत्ता
वो इसे ही
कहता है एकता
वो
एक की इच्छा से
पूरी जनता को हाँक कर
बहुदलीय लोकतंत्र को
बनाना चाहता है
एकाकार
कई पात्रों से होकर गुजरता
उसका एकल अभिनय
अकसर
कर जाता है
भावनाओं की सीमा पार
और
देर तक
तालियों की गड़गड़ाहट
से गूंजता सभागार
बता देता है उसे
कि
दशकों से अंधे, बहरे
और
मूक दर्शकों को
आज भी
सेवक की नहीं
एक अदद
तानाशाह की है
दरकार
तो बोलो, अबकी बार....!

- भूपेश पंत

हलचल होगी!

खुद सवाल बनेगी खुद ही हल होगी
तुझको लिख डालूंगा तो गज़ल होगी।

उम्मीदों के दिये तुम जला कर रखना
झोपड़ी भी कभी देखना महल होगी।

चाहे लाख तोड़ लें वो जहां के आइने
आईना इक रोज उनकी शकल होगी।

जानती ही होगी वो मेरे मन की बात
सरकार है थोड़े ही कम अकल होगी।

पा लिया है जो ऊँचा सियासी मुकाम
तेरी भी हर एक बात बस छल होगी।

सबको पीस देगी ये वक़्त की चक्की
इस रात की भी तो सुबह कल होगी।

आयेंगे तो मांगना जुमलों का हिसाब
इस बहाने ही एक नयी पहल होगी।

बांध कर परिंदों के पर ये कहा उसने
उड़ने से फ़िज़ाओं में हलचल होगी।

किस रास्ते पर जाएगी ये नयी पीढ़ी
इंसानियत की राह जो ओझल होगी।

लिखूंगा तभी किसी के गेसुओं पे जो
मुश्किलात वतन की सारी हल होगी।

- भूपेश पंत

सोमवार, 31 दिसंबर 2018

नव वर्ष में कदम बढ़ाएं

तारीखें बदलती हैं
हर रोज
फिर एक दिन
पूरा साल बीत कर
इतिहास में हो जाता है
दर्ज
आओ देखें
कितना बचा
और कितना चुकाया
इंसानियत का
कर्ज

इससे पहले कि
लोकतंत्र का
पांच वर्षीय महापर्व
हम सब मनाएं
इतिहास के इन पन्नों को
पलटाएं
सदियों पहले नहीं
सिर्फ
पांच साल पीछे जाएं


कितनी
मिली सुविधाएं
खत्म हुईं
कितनी दुविधाएं
बचीं या फिर
मर गयीं संवेदनाएं

इससे पहले
कि
इसके या
उसके पक्ष में नारे लगाएं
तय करें
काले धन के नाम
पर कहीं
मन काले न हो जाएं

बेटों को पढ़ाएं
कि
बेटियां कैसे बचायें
खत्म हों
कैसे समाज से
पुरुषत्व की क्रूर दासताएं

खेत खलिहानों में
पसीने की तरह
खून टपकाते
हाथों से
दो जून रोटी खाएं
तो कभी
शांत पहाड़ी वादियों में
अपने हक़ के
लिये
गला फाड़ कर चिल्लाएं

एक दूसरे पर
थोड़ा हंसें
और थोड़ा अपनी
आत्म मुग्धता को हंसाएं
बदल जाएं
चाहे कितनी सत्ताएं
उस पर
बेधड़क बोली का
अंकुश लगाएं

चलो!
इस साल को
लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का
साल बनायें
नये साल में नये अंदाज़ में
मिल कर कदम बढ़ाएं।

आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।

रविवार, 30 दिसंबर 2018

सच बेचिये, खुद को नहीं!

भूपेश पंत

सार्थक पत्रकारिता के मकसद से निकलने वाली चुनिंदा पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों या वेबसाइट्स के शुभचिंतकों में तकरीबन हर उम्र, तबके और सामाजिक परिवेश के लोग होते हैं, लेकिन उनकी चिंता आश्चर्यजनक रूप से समान है। ये लोग मानते हैं कि सच लिखना और बोलना धीरे धीरे और मुश्किल होता जा रहा है। इन हालात में भी कुछ लोग वही सच लिख बोल रहे हैं जो जन भावनाओं से जुड़ा है। लेकिन उनकी चिंता सच बोलने को लेकर नहीं सच के ज़िंदा रहने को लेकर है। इन सबका सोचना यही है कि जो लोग सच को सामने लाने की हिम्मत कर रहे हैं वो ऐसा कब तक कर पाएंगे। इन चिंताओं के पीछे दरअसल एक ही सूत्र वाक्य है कि सच सुनना और पढ़ना अच्छा तो लगता है लेकिन सच बिकता नहीं।

कुछ लोग इस परंपरागत विचार से ज़रूर आंख मूंद कर सहमत होंगे लेकिन मुझे लगता है कि सच को बेचने पर पाबंदी लगाने वाली इस सोच ने दरअसल सच को हराने का ही काम किया है। सच को अगर लिखा-पढ़ा जा सकता है, बोला-सुना जा सकता है, पसंद किया जा सकता है तो फिर सच को बेचा क्यों नहीं जा सकता। इसी सोच ने लोगों में ये धारणा बनायी है कि सच लिख-बोल कर कुछ हासिल नहीं हो सकता। कहीं संस्कारों के नाम पर ये सच के खिलाफ कोई साज़िश तो नहीं है?  वैसे भी पत्रकारिता को सदा से ही सच को सामने लाने वाले औज़ार के तौर पर देखा गया है। सच लिखने और दिखाने का दावा करने वाले मीडिया संस्थान भी तो दरअसल सच को बेचने की दुकानें ही हैं। ये कतई ज़रूरी नहीं कि सच बिकाऊ बन कर अपना अस्तित्व खो दे। लोग अगर सच जानना चाहते हैं तो उन्हें उसकी कीमत तो चुकानी ही चाहिये। सच को बिकाऊ बनाने का मकसद समाज में सच की सत्ता को स्थापित करना होना चाहिये ताकि जीवन के हर क्षेत्र में लोग सच से जुड़ने का साहस कर सकें। सच को गरीब बना कर ये काम नहीं हो सकता। लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि सच को बेचने के नाम पर उसे बाजारू ना बनने दिया जाये। सच तभी बाजारू बनेगा जब उसे लिखने और बोलने वाले खुद बिकाऊ हो जायें। दुर्भाग्य से आज हो यही रहा है। सच के नाम पर कलम बेची जा रही है। सियासत से लेकर मीडिया तक फैली कारोबारी ताकतों को भी सच की ताकत का अहसास है। सरकारें चाहती तो नहीं लेकिन मानती ज़रूर हैं कि लोगों को सच जानने का अधिकार है। सूचना का अधिकार इसी वजह से अस्तित्व में आया। सच के ही नाम पर कई चैनल और पत्र पत्रिकाएं मौजूदा दौर में झूठ की फसल उगा रही हैं। सच का मुलम्मा लगा कर उसे लोगों के सामने परोस कर खूब मुनाफा भी कमाया जा रहा है। लेकिन सच आज भी उतना ही निरीह और मजबूर है जितना पहले था। सच बोलने वाली आवाज़ें या तो सत्ता के दमन चक्र के आगे घुटने टेक देती हैं या फिर उन्हें बड़ी ही चालाकी से खामोश कर दिया जाता है। ये लोग संस्कारों के नाम पर सच को बिकाऊ नहीं बनने देते और उसी की आड़ में झूठ के कारोबार का रास्ता साफ करते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे धर्म के तथाकथित ठेकेदार भगवान की आड़ में अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं। आधा सच तो झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि उसकी वजह से कोई द्रोणाचार्य निहत्था करके मारा जा सकता है।

सच को ज़िंदा रखने की ज़िम्मेदारी सिर्फ सच लिखने और बोलने वालों की ही नहीं है। सच सुन कर ताली बजाने से ही काम नहीं चलेगा। सच को किसी तमाशे की तरह देखने की बजाय उसे जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा। सच सुनना, पढ़ना और जानना पसंद करने वालों को उसे बचाने के लिए भी आगे आना होगा। सियासत और पत्रकारिता समेत जीवन के हर पहलू में सकारात्मक बदलाव के लिये सच की प्राण प्रतिष्ठा किया जाना बहुत ज़रूरी है।
(राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस पर विशेष) 

बूढ़ी उम्मीदों का जवान राज्य है उत्तराखंड

भूपेश पंत

लड़ भिड़ कर पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के लोगों ने नौ नवंबर 2000 में अलग राज्य की अपनी मांग मनवा ही ली। इस मांग को लेकर हुए जनांदोलन को चौबीस साल बीत गये और राज्य मिले अठारह साल। यूपी के पर्वतीय इलाके की उपेक्षा और योजनाओं में पहाड़ की अनदेखी के आक्रोश से जन्मा था पृथक पर्वतीय राज्य का ये जनांदोलन। हर क्षेत्र में पिछड़े इस पर्वतीय इलाके के लोगों का गुस्सा भड़काने का काम किया आरक्षण के मुद्दे ने। लोग आरक्षण के विरोधी नहीं थे लेकिन भौगोलिक आधार पर अपने पिछड़े होने के बावजूद जातीय आधार पर अवसरों में कटौती का अहसास उन्हें सड़कों पर उतार लाया और देखते देखते ये आंदोलन अलग राज्य की मांग में तब्दील हो गया।
क्या छात्र, क्या महिलाएं, क्या कर्मचारी और क्या कारोबारी, अपने अस्तित्व को बचाने की इस जद्दोजहद में हर कोई भागीदार था। राजनीतिक दलों ने आंदोलन की आंच में सियासी रोटियां सेंकनी शुरू कीं लेकिन जनता के इस आंदोलन की कमान ना तो कोई सियासी दल अपने हाथ में ले पाया और ना ही कोई नेता। तत्कालीन यूपी सरकार का दमनचक्र भी चरम पर था। खटीमा, मसूरी, नैनीताल, मुजफ्फरनगर से लेकर दिल्ली तक खून के छींटे भी उड़े और आंदोलन की तपिश भी महसूस की गयी। सड़कों पर उतरा हर व्यक्ति अलग राज्य के निर्माण में अपनी भागीदारी निभा रहा था। भागीदार वो भी थे जो अपने घरों, मोहल्लों और गांवों में पुलिसिया गिरफ्त से बच कर पहुंचे अनजाने चेहरों को छत और खाना मुहैया करा रहे थे। भागीदार वो लोग भी थे जिन्होंने आंदोलन की कामयाबी की दुआएं मांगीं।
इस जन आंदोलन ने उत्तराखंड को बहुत कुछ दिया। अपमान, पीड़ा, शहादत, उत्पीड़न और बलात्कार की नींव पर उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ और साथ ही मिली आंदोलन से उपजे नेताओं की नयी फौज। ये वो लोग थे जिनमें उत्तराखंड राज्य को लेकर भावनाओं का ज्वार था, कुछ सपने थे और व्यवस्था के प्रति एक आक्रोश था। सियासत में अधपके ये लोग सियासी दलों के खांटी नेताओं के लिये बहुत बड़ा खतरा थे जो नये राज्य के निर्माण में अपने लिये नयी संभावनाएं तलाश रहे थे। यही वजह रही कि जो नेता जन आंदोलन की अगुवाई तक नहीं कर पाये वही नये राज्य की सियासत के सबसे बड़े सूबेदार बन कर अगली पंक्ति में जा खड़े हुए।
नेताओं और नौकरशाहों के चमकते चेहरे अपनी सियासी और माली हालत में सुधार की पूरी गुंजाइश देख रहे थे। खतरा था तो बस उन नौजवानों और जागरूक बुद्धिजीवियों से, जो अपने सपनों के नये राज्य में पहाड़ के सुलगते सवालों का हल तलाश रहे थे। बस यहीं से शुरू हुई आंदोलन में भागीदारी के रिटर्न गिफ्ट बांटने की सियासत। नवोदित पर्वतीय राज्य के सियासी आकाओं ने आंदोलन से जुड़े लोगों को सहूलियतों, रियायतों, प्रमाणपत्रों और नौकरियों का झुनझुना दिखाना शुरू किया। ये वो सियासी दांव था जो और किसी भी दूसरे नवोदित राज्य में इस तरह नहीं चला गया। लोगों को भी लगा कि अगर सरकार उनके त्याग और बलिदान की कीमत चुका रही है तो इसमें बुरा क्या है। आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण के नाम पर लोगों को खेमों में बांट दिया गया।
आंदोलन के दौरान मारे गये शहीदों के नाम पर स्मारक बना कर औपचारिकता पूरी कर दी गयी। सोचा ये जाना था कि नये राज्य के पुराने मुद्दों का हल कैसे मिले, पहाड़ की दुश्वारियां कैसे दूर हों और विकास के सपनों को कैसे साकार किया जाये। लेकिन सियासी साजिश का शिकार होकर आंदोलन की कोख से जन्मे आंदोलनकारी अपनी ऊर्जा इस बात पर खर्च करने लगे कि आंदोलन में भागीदारी की ज्यादा से ज्यादा कीमत उन्हें कैसे मिले और दूसरों को कैसे नहीं। पहाड़ के वास्तविक मुद्दों को पेंशन की रकम, चिह्नीकरण में आ रही दिक्कत, सम्मान पाने की होड़ और रियायतों की झड़ी से ढक दिया गया। जुझारू लोगों को सुविधाभोगी बनाने की साजिश रची गयी।
वो आंदोलनकारी जो नये राज्य के बेहतर निर्माण में नींव के पत्थर बन सकते थे उन्हें एक ऐसे ढांचे के कंगूरे बना कर सजा दिया गया जिसकी नींव में भ्रष्टाचार, ऐय्याशी, अपराध, शराब माफिया, खनन माफिया और भू माफिया जैसी दीमकें आज भी रेंग रही हैं। सियासी दलों को अपने इस दांव से राहत भी मिली और रोजगार भी। कुछ आंदोलनकारी आज भी स्थायी राजधानी गैरसैंण समेत राज्य के तमाम अनसुलझे मुद्दों को लेकर छिटपुट लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन स्वार्थों की सियासत न तो उन्हें एकजुट होने दे रही है और न ही मजबूत। राज्य आंदोलनकारियों के नाम पर हो रही सियासत का ये एक ऐसा भद्दा चेहरा है जो लोगों के त्याग और कुर्बानियों को सरकारी पलड़े में तोल कर उसकी बोली लगा रहा है। हैरानी की बात तो ये है कि सियासत के इस मकड़जाल में फंसे लोग खुद आगे बढ़ चढ़ कर अपनी बोली लगा रहे हैं। जैसे कि वो आंदोलन में कूदे ही थे ये सब पाने के लिये।
बीते अठारह सालों में उत्तराखंड तो जवान हो गया लेकिन लोगों की उम्मीदें बुढ़ाती चली गयीं। राज्य में हाईकमान संस्कृति से संचालित राष्ट्रीय दलों की सरकारें विकास को उन सुदूर पहाड़ी इलाकों तक चढ़ाने में नाकाम रहीं जिनके लिये ही वास्तव में राज्य का गठन किया गया था। ये सरकारें कभी नौकरशाहों की मनमर्जी का रोना रोती नज़र आती हैं तो कभी गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का मुद्दा गरमाती हैं। पलायन के कारण वीरान होते गांव हों या आपदा राहत के नाम पर बंदरबांट, शिक्षा-स्वास्थ्य और पेयजल से जुड़े मसले हों या पहाड़ से जुड़ी लोकलुभावन घोषणाएं सरकार और विपक्ष के रूप में ये राष्ट्रीय दल आपस में नूराकुश्ती ही करते नज़र आते हैं।
पहाड़ की जनता को इस मामले में प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल से भी निराश ही हाथ लगी है। पार्टी के इक्का दुक्का विधायक अपनी सुविधा से सरकारों की गोद में जा बैठते हैं और संगठन के पांव तले जैसे ज़मीन ही गायब है। गुटों में बंट कर अपनी पहचान खो चुकी यूकेडी अगर पहाड़ की जनता के मुद्दों को आक्रामकता से उठाती तो शायद उनके दिलों में कुछ जगह भी बना पाती। लेकिन खुद को बचाने की कशमकश में ही उलझी ये क्षेत्रीय पार्टी कभी इन मुद्दों की तरफ पूरे जोश के साथ लौट भी पाएगी ऐसी उम्मीद करना फिलहाल बेमानी लगता है।
पहाड़ की अस्मिता के संघर्ष में जुटे छोटे छोटे राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन स्थानीय स्तर पर इन समस्याओं के लिये संघर्ष जरूर कर रहे हैं लेकिन उन्हें एक सूत्र में पिरो सके ऐसी कोई राजनीतिक शक्ति उभर पाएगी इसे लेकर भी संदेह बना हुआ है। पहाड़ के इस तरह बंटे होने का सियासी लाभ हमेशा की तरह कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी उठाती आयी हैं। सच तो ये है कि अपने जन्म के साथ ही उत्तराखंड शहीदों और आंदोलनकारियों के सपने का राज्य नहीं बन पाया है।
वो तो बस भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों की चारागाह बन कर रह गया है। यानी जो जनांदोलन चौबीस साल पहले हालात में बदलाव के जिन सपनों के साथ शुरू हुआ था वो लक्ष्य अब तक अधूरा है। ये एक जनांदोलन और उससे जुड़े सपनों की मौत नहीं तो और क्या है? सच तो ये है कि पिछले अठारह सालों से हम अपनी ही उम्मीदों की लाश समारोह पूर्वक ढो रहे हैं और सरकारें हर साल इसी बात का उत्सव मनाती हैं।
 09/11/2018

शौक़!

न यहाँ का शौक़ है न ये वहाँ का शौक़ है
ये वहशत की सियासत कहाँ का शौक़ है।

क्यों खफ़ा हैं मेरे शौक़े तसव्वुर से इतना
उन्हें भी तो सुना है सारे जहाँ का शौक़ है।

पहाड़ी पर फिर से मंडरा रहा है एक बाज
ऊंचाई से शिकार पर झपटने का शौक़ है।

गिरगिट को भी इतना ये हुनर नहीं आता
नेता को जितना सूट बदलने का शौक़ है।

धोते हैं बाद क़त्ल के वो हाथ और खंजर
क़ातिलों से वाबस्ता सफ़ायी का शौक़ है।

एक के कुसूर पे पूरी क्लास ने पायी सज़ा
मास्साब को लाइन में पिटाई का शौक़ है।

उनका दावा है कि शौक पान का भी नहीं
जिन्हें ईमान की सुपारी चबाने का शौक़ है।

ज़माने के दर्द से छलनी हो चुका है सीना
ख़ुदा जाने हमें ये किस ज़माने का शौक़ है।

जो रो रहे हैं तुम्हारे आगे यों फूट फूट कर
उनकी हरेक अदा फूट डालने का शौक़ है।

हर बात पे तुम्हारी कर लेते हैं हम भरोसा
क्या सांप आस्तीन के पालने का शौक़ है।

- भूपेश पंत